mirza ghalib shayari on love
मिर्ज़ा ग़ालिब के बारे में आप क्या जानते हैं? क्या आप उनकी कोई शायरी साझा कर सकते हैं?

मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग ख़ां उर्फ “ग़ालिब” उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के महान शायर थे।
ग़ालिब नाम से लिखने वाले मिर्ज़ा मुग़ल काल के आख़िरी शासक बहादुर शाह ज़फ़र के दरबारी कवि भी रहे थे।
आगरा, दिल्ली और कलकत्ता में अपनी ज़िन्दगी गुजारने वाले ग़ालिब को मुख्यतः उनकी उर्दू ग़ज़लों को लिए याद किया जाता है
ग़ालिब का जन्म आगरा मे एक सैनिक पृष्ठभूमि वाले परिवार में हुआ था।
उन्होने अपने पिता और चाचा को बचपन मे ही खो दिया था, ग़ालिब का जीवनयापन मूलत: अपने चाचा के मरणोपरांत मिलने वाले पेंशन से होता था. (वो ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी मे सैन्य अधिकारी थे).
ग़ालिब की पृष्ठभूमि एक तुर्क परिवार से थी और इनके दादा मध्य एशिया के समरक़न्द से सन् १७५० के आसपास भारत आए थे।
गालिब को बचपन में ही पतंग, शतरंज और जुए की आदत लगी लेकिन दूसरी ओर उच्च कोटि के बुजुर्गों की सोहबत का लाभ मिला.
शिक्षित मां ने गालिब घर पर ही शिक्षा दी जिसकी वजह से उन्हें नियमित शिक्षा कुछ ज़्यादा नहीं मिल सकी.
कहा जाता है कि जिस वातावरण में गालिब का लालन पालन हुआ वहां से उन्हें शायर बनने की प्रेरणा मिली.
जिस मुहल्ले में गालिब रहते थे, वह (गुलाबखाना) उस जमाने में फारसी भाषा के शिक्षण का उच्च केन्द्र था.
वहां मुल्ला वली मुहम्मद, उनके बेटे शम्सुल जुहा, मोहम्मद बदरुद्दिजा, आज़म अली तथा मौहम्मद कामिल वगैरा फारसी के एक-से-एक विद्वान वहां रहते थे.
शायरी की शुरुआत उन्होंने 10 साल की उम्र में ही कर दी थी लेकिन 25 साल की उम्र तक आते-आते वह बड़े शायर बन चुके थे.
अपने जीवन काल में ही गालिब एक लोकप्रिय शायर के रूप में विख्यात हुई. 19वीं और 20वीं शताब्दी में उर्दू और फारसी के बेहतरीन शायर के रूप में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली तथा अरब एवं अन्य राष्ट्रों में भी वे अत्यन्त लोकप्रिय हुए.
गालिब की शायरी में एक तड़प, एक चाहत और एक कशिश अंदाज पाया जाता है. जो सहज ही पाठक के मन को छू लेता है.
इश्क़ ने ‘ग़ालिब’ निकम्मा कर दिया
वर्ना हम भी आदमी थे काम के
इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश ‘ग़ालिब’
कि लगाए न लगे और बुझाए न बने
अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
जिस दिल पे नाज़ था मुझे वो दिल नहीं रहा
इश्क़ मुझ को नहीं वहशत ही सही
मेरी वहशत तेरी शोहरत ही सही
इश्क़ से तबीअत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया
इश्क़ से तबीअत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया
दर्द की दवा पाई दर्द-ए-बे-दवा पाया
एतबार-ए-इश्क़ की ख़ाना-ख़राबी देखना
ग़ैर ने की आह लेकिन वो ख़फ़ा मुझ पर हुआ
कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती
मौत का एक दिन मुअय्यन है
नींद कयों रात भर नहीं आती
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